Saturday, January 29, 2011

In the land of Kangaroos, ज़िंदगी छलने लगी


ज़िंदगी छलने लगी
 


  शाम जब ढलने लगी

 
कंगारूओं के देश में
 
पीर सी पलने लगी
 
कंगारूओं के देश में

 
याद फिर आने लगे
 
कुछ दोस्त अपने वतन के
 
आग सी जलने लगी
 
कंगारूओं के देश में
 दूर तक पसरी हुई थीं
 
अपनी जो परछाइयाँ
 
हाथ फिर मलने लगीं
 
कंगारूओं के देश में

 
फिर लगा मन सोचने
 
कि क्या मिला क्या न मिला
 
कुछ कमी खलने लगी
 
कंगारूओं के देश में

 
वक्त पंछी सा न जाने
 
कब, कहाँ उड़ता गया
 
ज़िंदगी छलने लगी
 
कंगारूओं के देश में



-रेखा राजवंशी

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