ज़िंदगी छलने लगी
शाम जब ढलने लगी
कंगारूओं के देश में
पीर सी पलने लगी
कंगारूओं के देश में ।
याद फिर आने लगे
कुछ दोस्त अपने वतन के
आग सी जलने लगी
कंगारूओं के देश में ।
दूर तक पसरी हुई थीं
अपनी जो परछाइयाँ
हाथ फिर मलने लगीं
कंगारूओं के देश में ।
फिर लगा मन सोचने
कि क्या मिला क्या न मिला
कुछ कमी खलने लगी
कंगारूओं के देश में ।
वक्त पंछी सा न जाने
कब, कहाँ उड़ता गया
ज़िंदगी छलने लगी
कंगारूओं के देश में ।
अपनी जो परछाइयाँ
हाथ फिर मलने लगीं
कंगारूओं के देश में ।
फिर लगा मन सोचने
कि क्या मिला क्या न मिला
कुछ कमी खलने लगी
कंगारूओं के देश में ।
वक्त पंछी सा न जाने
कब, कहाँ उड़ता गया
ज़िंदगी छलने लगी
कंगारूओं के देश में ।
-रेखा राजवंशी
wah
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