Wednesday, January 12, 2011

कंगारूओं के देश से


काश

काश मेरा आकाश
कुछ और फ़ैल जाता
काश मेरी हवा
कुछ और दूर जाती
और छूकर आती
उन लोगों को
जो वर्षा में
बाढ़ से पीड़ित हैं
जो गर्मी में
सूखे से ग्रसित हैं
जो भीख मांगने को
लाचार हैं
हाथ पैर होते हुए
बेकार हैं


काश मेरा आकाश
कुछ और फ़ैल जाता
काश मेरी हवा
कुछ और दूर जाती
और छूकर आती उन्हें
जो व्यवस्था के
शिकार हैं
उन छोटे बच्चों को
जो बीमार हैं
उन महिलाओं को
जो सहती तिरस्कार हैं
उन बच्चियों को
जो झेलती बलात्कार हैं ।

काश मेरा आकाश
कुछ और फ़ैल जाता
काश मेरी हवा
कुछ और दूर जाती
दुखी लोगों के
मन को सहलाती
बूढ़े पिता को
धीरज बंधाती
अकेली माता को
हिम्मत दिलाती
नन्हीं मुनिया को
प्यार से बहलाती

काश मेरी दुआ
दूर मेरे लोगों तक जाती
और उन्हें छूकर आती
कंगारूओं के देश से





बदलाव

पिंजरे के तोते
बजी बन गए
बांसुरी के सुर सज गए
डिजरी डू में
गुलमोहर सिमट गए
बोटल- ब्रश की झाड़ियों में
और जाने कब
कैद हो गए
दीवाली और ईद
सप्ताहांत में

जाने कैसे बदल गई
वक्त की परिभाषा
घड़ी की सुई से बंध गई
रिश्तों की आशा

दोस्त बदलाव की
इस प्रक्रिया में
सवाल नहीं है
कुछ पाने या खोने का
खुश होने या न होने का

सवाल बदलाव को
स्वीकारने का है
सवाल हालात से
न हारने का है



 


बदलते बच्चे

आकाश के बादल
विविध आकार लेते हैं
रात के तारे
अनगिन रूप बदलते हैं
शाम के झुटपुटे में
चन्दा मामा भी आता है
साथ में चरखा कातती
बुढ़िया दादी भी लाता है
जुगनू अँधेरे में थाम लालटेन
जाने किसे ढूँढने आता है
पर उसे देख कोई बच्चा
ताली नहीं बजाता है

जाने किसकी प्रतीक्षा में
रात-रानी सुगंध फैलाती है
जाने किसे रिझाने को
कोयल गीत गाती है
और किसी को न पाकर
उदास हो जाती है

कमरे के अन्दर कोने में
टेबल लैम्प जलते रहते हैं
और आजकल के बच्चे
अपने जीवन में उलझे रहते हैं
चलता रहता है घर में
टी वी, वीडियो गेम या कम्प्यूटर
होता रहता है होमवर्क
बैठा रहता है ट्यूटर
इन्द्रधनुष के रंग
देखते नहीं. बाहर जाकर
बच्चे वाकई बदल गए हैं
इक्कीसवीं सदी में आकर


भटकाव 
 इंसान ने काट दिए
जंगलके जंगल
उखाड़ दिए फलते-फूलते दरख़्त
उजाड़ दिए खुशबू लुटाते गुलिस्तान
बो दिए घ्रणा के बबूल
और हरी-भरी धरती को देखते ही देखते
बना दिया रेगिस्तान ।



उसने बनाईं बड़ी-बड़ी इमारतें
पूरी कीं जाने
क्या-क्या हसरतें
चाँद को छुआ
आसमान में उड़ा
अणुबम बनाया
और अपनी ही कौम पर उसे चलाया
इंसान ने खुद को मिटाया
पैसे को बड़ा बनाया
बंधा रहा हर वक्त
लालच के पाश से
और बिता  दी पूरी ज़िंदगी 
शान्ति की तलाश में ।

कि ग्लेशियर बदलते रहे
मौसम बे-मौसम बदलते रहे
तपती रही धरती,
विनाशकारी नर्तन
करने लगी प्रकृति ।

बंजर मन और सूनी आँखें
लगाती रहीं जाने क्या आशा
और बदलता रहा मानव
भूलता रहा
प्रेम की भाषा ।

2 comments:

  1. 'Kash Mera akash kuchh aur phail jaataa'-----Adbhut kalpana evam abhivyakti Rekha Ji. Bahut marmsparshi kavita hai. Badhai.

    Mahesh Chandra Dwivedy

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  2. जाने कैसे बदल गई
    वक्त की परिभाषा
    घड़ी की सुई से बंध गई
    रिश्तों की आशा ।

    भाव सुन्दर है.

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