Sunday, April 10, 2011

अघोरी मन

अघोरी मन 

जाने कब मन
अघोरी हो जाता है
आधी रात को
श्मशान में बैठ
यादों की अग्नि
जलाता है ।

मंडराने लगते हैं
चारों ओर
भटकती आत्माओं से
गुज़रे पल,
वशीकरण मन्त्र
पढ़ने लगते हैं ओंठ
लौटने लगते हैं
बीते कल

दिखने लगते हैं
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो
खेलते बचपन के साथी,
दिखता है स्कूल में
आलू की टिक्की बेचता चंदा,
और दिखता है चश्मा लगाए
क्यारियाँ रोपता माली चोखेलाल,
और तब माँ की
आवाज़ आती है
'चलो खाना खा लो'

थम जाते हैं
अचानक सारे तंत्र
याद नहीं रहते
कोई भी मन्त्र,

व उड़ जाते हैं
चीखते -चिल्लाते,
यादों के भूत

दिखने लगता है
पूजावनत माँ का
पवित्र रूप
और जाने कब
भटकता तड़पता 
 अघोरी मन
बन जाता है जोगन ।


रेखा राजवंशी 

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