Wednesday, January 12, 2011

जैसे हर बात पे - ग़ज़ल

 दीप रातों में

दीप रातों में जला के रखिये
फूल कांटों में खिलाके रखिये ।

जाने कब घेर ले अकेलापन
एक-दो दोस्त बनाके रखिये ।

दर्द के, दुःख के विरह के आंसू
मुस्कराहट में छिपाके रखिये ।

राह लम्बी है ज़िंदगी छोटी
ख़्वाब खुशियों के सजाके रखिये ।

राज़ अपने हों या पराए हों
अपने होठों में दबाके रखिये।

दोस्त तो दोस्त दुश्मनों को भी
अपने सीने से लगाके रखिये ।

कोई हमदम न कहीं मिल जाए
चाँद तारों को सजाके रखिये ।






शहर का मौसम


आज मेरे शहर का मौसम उदास है
जैसे कि कोई दिल के कहीं आस-पास है



आहट किसी के पाँव की सुनकर लगा मुझे
चुपचाप चल रहा है, कोई मेरे साथ है



क्यों सर्द रात आज फिर देने लगी तपिश
लगता है तेरे हाथ में फिर मेरा हाथ है



आज जाने क्या हुआ कि वक्त रुक गया
काटे नहीं कटती भला ये कैसी रात है



जिसकी तलाश करती हूँ, तेरी निगाह में
लगता है उस सवाल का ये ही जवाब है



जैसे हर बात पे



जैसे हर बात पे डर लगता है
कितना मुश्किल ये सफ़र लगता है ।

लोग रोने पे सज़ा देते हैं
मुस्कराना तो ज़हर लगता है ।

राह के दीप बुझ गए सारे
कैसा वीराना शहर लगता है ।

लाके साहिल पे डुबो देता है
ये सफ़र मौत का घर लगता है ।

उसकी सूरत का क्या करें दीदार
जब ये पर्दा ही कहर लगता है 





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