मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला।
कुछ ढलके आंसू
जो अब भी नर्म थे,
भूले बिसरे अफ़साने
जो अब तक गर्म थे।
कुछ मोती, कुछ पत्थर
जो मैंने बटोरे थे,
बचपन की यादों के
रेशमी डोरे थे।
कागज के टुकड़े थे
अनलिखी कहानी थी।
हो गई फिर ताज़ी
पीर जो पुरानी थी।
बंद संदूक में
ख्वाहिश की कतरन थी।
तबले की थापें थीं
टुकड़े थे, परन थीं।
देखा, सराहा
कुछ आंसू बहाए।
बंद संदूक में
फिर सब छिपाए।
-रेखा राजवंशी
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
बहुत सुंदर रचना है।
ReplyDelete- घनश्याम
रेखा राजवंशी जी ,आप की कविता संदूक के माद्ध्यम से मन की अतल गहराइयों में उतर जाने का अवसर देती है .आप को हार्दिक बधाई .
ReplyDeleteसंदूक में यादें आई बचपन की
ReplyDeleteजब आयु हुई पचपन की