Thursday, January 13, 2011

संदूक

संदूक

मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला।


कुछ ढलके आंसू
जो अब भी नर्म थे,
भूले बिसरे अफ़साने
जो अब तक गर्म थे।

कुछ मोती, कुछ पत्थर
जो मैंने बटोरे थे,
बचपन की यादों के
रेशमी डोरे थे।

कागज के टुकड़े थे
अनलिखी कहानी थी।
हो गई फिर ताज़ी
पीर जो पुरानी थी।

बंद संदूक में
ख्वाहिश की कतरन थी।
तबले  की थापें थीं
टुकड़े थे, परन थीं।

देखा, सराहा
कुछ आंसू बहाए।
बंद संदूक में
फिर सब छिपाए।


-रेखा राजवंशी
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया

3 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना है।

    - घनश्याम

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  2. रेखा राजवंशी जी ,आप की कविता संदूक के माद्ध्यम से मन की अतल गहराइयों में उतर जाने का अवसर देती है .आप को हार्दिक बधाई .

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  3. संदूक में यादें आई बचपन की
    जब आयु हुई पचपन की

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