पिघलता अस्तित्व
कंगारूओं के देश में
कभी-कभी
अस्तित्व पिघलता है
फूलों पर जमी
ओस की तरह
अलस्सुबह टपकता है ।
कन्धों पर उठा लेती हूँ मैं
गुज़रे हुए वक़्त की नदी
नदी के कच्चे किनारे
और नदी के किनारे उगा हुआ
पुराना विशाल बरगद ।
प्रयास करती हूँ निरर्थक
रोकने का उस सुनामी को
जो हमारे बीच आती है ।
नदी रुकती नहीं
पर बाढ़ थम जाती है ।
और मैं खिड़की के पास खड़ी
करने लगती हूँ पीछा
रात के दामन में फैले
छोटे-छोटे सितारों का
जिसमें मौजूद है
इसका, उसका, तुम्हारा ख्याल ।
अस्तित्व पिघलता है
फूलों पर जमी
ओस की तरह
अलस्सुबह टपकता है ।
कन्धों पर उठा लेती हूँ मैं
गुज़रे हुए वक़्त की नदी
नदी के कच्चे किनारे
और नदी के किनारे उगा हुआ
पुराना विशाल बरगद ।
प्रयास करती हूँ निरर्थक
रोकने का उस सुनामी को
जो हमारे बीच आती है ।
नदी रुकती नहीं
पर बाढ़ थम जाती है ।
और मैं खिड़की के पास खड़ी
करने लगती हूँ पीछा
रात के दामन में फैले
छोटे-छोटे सितारों का
जिसमें मौजूद है
इसका, उसका, तुम्हारा ख्याल ।
रेखा राजवंशी
शब्दों और भावों का अनूठा सामंजस्य कराते हुए कितनी सरलता और सहजता से इतनी बड़ी बात कह दी आपने जो सीधे सीधे अंतर्मन में उतरती है - साधुवाद
ReplyDeleteक्या बात है !
ReplyDeletePls remove word verification.
बहुत खूब.
ReplyDeleteकन्धों पर उठा लेती हूँ मैं
ReplyDeleteगुज़रे हुए वक़्त की नदी.....
shabdo ka anupam prayog.... bohot hi sundar rachna :)
इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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