Saturday, February 12, 2011

Echoes of the past अतीत की प्रतिध्वनि

अतीत की प्रतिध्वनि

वर्तमान जब अतीत में बदलता है
तो न मैं, न तुम, न कोई और ही
समूचा रह पाता है ।

एक भाग जीवन का
चाहे छोटा सा हो
चाहे हँस
के बीता हो या रो के
महकते हुए गुलाब की तरह
या चुभते हुए कांटे की तरह
बस के रह जाता है
मानस पटल में ।

क्या हम बीनते नहीं रहते
सीपें सागर तट पर?
बनाते नहीं रहते घरौंदे
तन्हाई में खेलने के लिए?
क्या हम जलाते नहीं रहते दीप
अँधेरे में रौशनी की
एक किरण पा लेने के लिए?

रिश्ते, चाय के प्याले की तरह
बासी नहीं होते
बस जाते हैं, मनो-मस्तिष्क में
बरसों तक आँगन में खिली
तुलसी की तरह।

मिलन का अंत सदैव विरह है
परन्तु विरह उपलब्धि है
खट्टी-मीठी स्मृतियों की
खाली झोली भर उठती है
फिर अतीत की प्रतिध्वनि
बरसों तक गूंजती रहती है
और जाने कब वर्तमान
अतीत बन जाता है ।

रेखा राजवंशी
काव्य संकलन 'अनुभूति के गुलमोहर' से एक कविता




2 comments:

  1. रिश्ते, चाय के प्याले की तरह
    बासी नहीं होते
    बस जाते हैं, मनो-मस्तिष्क में
    बरसों तक आँगन में खिली
    तुलसी की तरह। इन पंक्तियों में तुलसी का प्र्योग बहुत सार्थक है ।

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  2. रिश्ते, चाय के प्याले की तरह
    बासी नहीं होते
    बस जाते हैं, मनो-मस्तिष्क में
    बरसों तक आँगन में खिली
    तुलसी की तरह।
    मंत्रमुग्ध कर दिया आपकी रचना ने ... इस रचना को वटवृक्ष के लिए rasprabha@gmail.com पर तस्वीर परिचय और ब्लॉग लिंक के साथ भेजें
    http://urvija.parikalpnaa.com/

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