Friday, February 4, 2011

पिघलता अस्तित्व Melting Existence





पिघलता अस्तित्व


कंगारूओं के देश में 
कभी-कभी
अस्तित्व पिघलता है
फूलों पर जमी
ओस की तरह
अलस्सुबह टपकता है ।

कन्धों पर उठा लेती हूँ मैं
गुज़रे हुए वक़्त की नदी
नदी के कच्चे किनारे
और नदी के किनारे उगा हुआ
पुराना विशाल बरगद
प्रयास करती हूँ निरर्थक
रोकने का उस सुनामी को
जो हमारे बीच आती है

नदी रुकती नहीं
पर बाढ़ थम जाती है ।
और मैं खिड़की के पास खड़ी
करने लगती हूँ पीछा
रात के दामन में फैले
छोटे-छोटे सितारों का
जिसमें मौजूद है
इसका, उसका, तुम्हारा ख्याल

रेखा राजवंशी

5 comments:

  1. शब्दों और भावों का अनूठा सामंजस्य कराते हुए कितनी सरलता और सहजता से इतनी बड़ी बात कह दी आपने जो सीधे सीधे अंतर्मन में उतरती है - साधुवाद

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  2. क्या बात है !
    Pls remove word verification.

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  3. कन्धों पर उठा लेती हूँ मैं
    गुज़रे हुए वक़्त की नदी.....
    shabdo ka anupam prayog.... bohot hi sundar rachna :)

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  4. इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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