Saturday, August 27, 2016

 दिल्ली में इस वर्ष अगस्त में मुट्ठी भर चांदनी मेरी ग़ज़ल की किताब प्रकाशित हुई। इसमें ५१ ग़ज़लें है, जो  एक तरफ  हिंदी और दूसरी तरफ उर्दू में हैं।  एनी बुक पालिकेशंस ने इसे प्रकाशित किया।
Mutthi Bhar Chandni 


Saturday, July 16, 2016

क़तरा क़तरा बातें


अश्कों की बरसातें लेकर लोग मिले
ग़म में भीगी रातें लेकर लोग मिले


पूरी एक कहानी कैसे बन पाती
क़तरा क़तरा बातें लेकर लोग मिले


भर पाते नासूर दिलों के कैसे जब
ज़हर बुझी सौगातें लेकर लोग मिले


अब गैरों से क्या शिकवा करने जाएं
अपनों को ही मातें देकर  लोग मिले


आशिक का  टूटा दिल कोई क्यों देखे
जब अपनी बारातें लेकर लोग मिले

-रेखा राजवंशी
 

Friday, April 29, 2016

ग़ज़ल


कुछ किसी से कहें जनाब 
अच्छा है चुप रहें जनाब

दुनिया बेहद जालिम है
हंस के सब कुछ सहें जनाब

पत्थर से सख्त रहें
पानी बन के बहें जनाब

और कभी तो खोलें भी
अपने मन की तहें जनाब

कुछ तो मज़बूती रखिये
बालू से ढहें जनाब

खाली झोली क्यों देखें
जितना है, खुश रहें जनाब

Tuesday, April 12, 2016

कोई मंज़र नज़र नहीं आता - रेखा राजवंशी





कोई मंज़र नज़र नहीं आता
क्यों मेरा घर नज़र नहीं आता


कितनी नफ़रत भरी है दुनिया में
कुछ भी बेहतर  नज़र नहीं आता



लोरियाँ नींद लेके आ पहुँचीं
सुख का बिस्तर नज़र नहीं आता



सारे  पैसों  के पीछे पागल हैं
घर कोई घर नज़र नहीं आता



इस क़दर बढ़ गई है मंहगाई
आस का दर नज़र नहीं आता



सरहदें तोड़ के घुस आया जो
क्यों वो लश्कर नज़र नहीं आता



अम्न की बात के ज़रा पीछे
तुमको  ख़ंजर नज़र नहीं आता

रेखा राजवंशी 

होली की शाम March 2016

फिर आई होली की शाम
फिर आई होली की शाम
...
मन में बजने लगे ढोल और मृदंग
फिर से सजने लगे गोरिया के अंग
न भाए अब कोई काम 
फिर आई होली की शाम 

फागुन बौराया है रचता है छन्द
इठलाती फिरती है हवा मंद मंद
मुखरित है पूरा ही गाम 
फिर आई होली की शाम  



घर आँगन, चौबारे हुए हरे लाल
चेहरे से उतरे न प्रीत का गुलाल
रंग भरी अलसाई घाम 
फिर आई होली की शाम 



Saturday, February 20, 2016

चाँद रोता रहा - रेखा राजवंशी



चाँद रोता रहा न जाने क्यों 
दर्द होता रहा न जाने क्यों 


मेरी गलियों का एक दीवाना 
आज सोता रहा न जाने क्यों 
 

चाँद के पैरहन को देख कोई
दाग धोता रहा न जाने क्यों


याद में फिर से अश्क की लड़ियाँ
वो पिरोता रहा न जाने क्यों


घर बनाने की ख्वाहिशें लेकर
बोझ ढोता रहा न जाने क्यों 


रोटियों के, गरीब का बच्चा
ख़्वाब बोता रहा न जाने क्यों 

-  रेखा राजवंशी 

Tuesday, January 26, 2016

परदेस में छब्बीस जनवरी

कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है
तो.. अपने वतन की कितनी यादें साथ लाती है
...

ये आजादी जो पाई है बड़ी कीमत चुकाई है

जाने कितने भी वीरों ने यहां पर जां गवाई है

बड़ी मुश्किल से मां की बेड़ियों को सब ने काटा था

फिरंगी शत्रु ने फिर भी हमारा देश बांटा था

कि वंदे मातरम की धुन यही गाथा सुनाती है

कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है



वो होली और दीवाली, कि ईदी सेवियों वाली
वो रावण दशहरे वाला, गली वो राखियों वाली
वो झूले झूलना, वो खेलना शतरंज की बाजी
शरारत पर पिता का डांटना कहना मुझेपाजी’
कहानी की परी जब-जब छड़ी अपनी घुमाती है
तो अपने वतन की ये कितनी यादें साथ लाती हैकि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है


..






याद आता है छत पर जा, पतंगों को उड़ाना भी
स्कूलों में तिरंगा फहरना,  नारे लगाना भी
कि माँ का आलू, पूरी और हलवे को बनाना भी
कि इमली और चूरन के लिए पैसे चुराना भी
कि बचपन के सभी किस्से कहानी साथ लाती है
कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है
तो अपने वतन की ये कितनी यादें साथ लाती है


रेखा राजवंशी, 
सिडनी ऑस्ट्रेलिया