This blog has my Hindi poems, articles and stories, mainly based on my migrant experiences in Australia. इस ब्लॉग में मेरी साहित्यिक रचनाएं हैं, आशा है सुधी पाठक पढ़ कर विचार व्यक्त करेंगे।
Saturday, August 27, 2016
Saturday, July 16, 2016
क़तरा क़तरा बातें
अश्कों की बरसातें लेकर लोग मिले
ग़म में भीगी रातें लेकर लोग मिले
पूरी एक कहानी कैसे बन पाती
क़तरा क़तरा बातें लेकर लोग मिले
भर पाते नासूर दिलों के कैसे जब
ज़हर बुझी सौगातें लेकर लोग मिले
अब गैरों से क्या शिकवा करने जाएं
अपनों को ही मातें देकर लोग मिले
आशिक का टूटा दिल कोई क्यों देखे
जब अपनी बारातें लेकर लोग मिले
-रेखा राजवंशी
Friday, April 29, 2016
Tuesday, April 12, 2016
कोई मंज़र नज़र नहीं आता - रेखा राजवंशी
कोई मंज़र नज़र नहीं आता
क्यों मेरा घर नज़र नहीं आता
कितनी नफ़रत भरी है दुनिया में
कुछ भी बेहतर नज़र नहीं आता
लोरियाँ नींद लेके आ पहुँचीं
सुख का बिस्तर नज़र नहीं आता
सारे पैसों के
पीछे पागल हैं
घर कोई घर नज़र नहीं आता
इस क़दर बढ़ गई है मंहगाई
आस का दर नज़र नहीं आता
सरहदें तोड़ के घुस आया जो
क्यों वो लश्कर नज़र नहीं आता
अम्न की बात के ज़रा पीछे
तुमको ख़ंजर नज़र नहीं आता
रेखा राजवंशी
होली की शाम March 2016
फिर आई होली की शाम
फिर आई होली की शाम
...
मन में बजने लगे ढोल और मृदंग
फिर से सजने लगे गोरिया के अंग
न भाए अब कोई काम
फिर आई होली की शाम
फागुन बौराया है रचता है छन्द
इठलाती फिरती है हवा मंद मंद
मुखरित है पूरा ही गाम
फिर आई होली की शाम
घर आँगन, चौबारे हुए हरे लाल
चेहरे से उतरे न प्रीत का गुलाल
रंग भरी अलसाई घाम
फिर आई होली की शाम
Saturday, February 20, 2016
चाँद रोता रहा - रेखा राजवंशी
दर्द होता रहा न जाने क्यों
मेरी गलियों का एक दीवाना
आज सोता रहा न जाने क्यों
चाँद के पैरहन को देख कोई
दाग धोता रहा न जाने क्यों
याद में फिर से अश्क की लड़ियाँ
वो पिरोता रहा न जाने क्यों
घर बनाने की ख्वाहिशें लेकर
बोझ ढोता रहा न जाने क्यों
रोटियों के, गरीब का बच्चा
ख़्वाब बोता रहा न जाने क्यों
- रेखा राजवंशी
Tuesday, January 26, 2016
परदेस में छब्बीस जनवरी
कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है
तो.. अपने वतन की कितनी यादें साथ लाती है
...
ये आजादी जो पाई है बड़ी कीमत चुकाई है
न जाने कितने भी वीरों ने यहां पर जां गवाई है
बड़ी मुश्किल से मां की बेड़ियों को सब ने काटा था
फिरंगी शत्रु ने फिर भी हमारा देश बांटा था
कि वंदे मातरम की धुन यही गाथा सुनाती है
कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है
वो होली और दीवाली, कि ईदी सेवियों वाली
वो रावण दशहरे
वाला, गली वो राखियों वाली
वो झूले झूलना, वो खेलना शतरंज की बाजी
शरारत पर पिता का डांटना कहना मुझे ‘पाजी’
कहानी की परी जब-जब छड़ी अपनी घुमाती है
तो अपने वतन की ये कितनी यादें साथ लाती है कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है
..
याद आता है छत पर जा, पतंगों को उड़ाना भी
स्कूलों में तिरंगा फहरना, नारे लगाना भी
कि माँ का आलू, पूरी और हलवे को बनाना
भी
कि इमली और चूरन के लिए पैसे चुराना भी
कि बचपन के सभी किस्से कहानी साथ लाती
है
कि इस परदेस में जब जनवरी छब्बीस आती है
तो अपने वतन की ये कितनी यादें साथ लाती है
रेखा राजवंशी,
सिडनी ऑस्ट्रेलिया
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