Saturday, November 1, 2014

ख्वाब


मैंने ख्वाब बहुत देखे थे 
कुछ सच थे, कुछ अनदेखे थे



कुछ पुड़िया में बंद पड़े थे 
कुछ गुड़िया के साथ जुड़े थे 
कुछ उड़ते फिरते तितली से 
कुछ छोटे, कुछ बहुत बड़े थे 

कुछ रंगीन बटन लगते थे 
झूले से भावन लगते थे 
सांझ जले चूल्हे की खुशबू 
जैसे वो पावन लगते थे 

कुछ गिर जाते आंसू बन कर 
जैसे बहती बर्फ पिघलकर 
कभी झिझकते, कभी सिसकते 
कभी ललकते, मचल-मचल कर 

कुछ माँ का आँचल लगते थे 
पापा का संबल लगते थे 
मुश्किल की तपती गर्मी में  
बारिश का बादल लगते थे 



जाने कब मैं बड़ी हो गई 
लड़की मैं फुलझड़ी हो गई 
माँ की चिंता, पिता का बोझा
दोराहे पर खड़ी हो गई 




छोड़ किताबों के सपनों को 
तोड़ के रिश्तों को, अपनों को  
मैं साजन के द्वार आ गई
खुशियों का संसार पा गई

जब बच्चों को पाल रही थी
माँ की ममता साल रही थी 
उनके ऊपर मैं थी मरती
तब भी सपने देखा करती

कुछ सपने तब गुब्बारे से,
उड़ते-उड़ते कहीं खो गए
कुछ सपने बच्चों के जीवन
से जुड़कर के पूर्ण हो गए

\
मैं अब भी सपने बुनती हूँ
बिखरी कलियों को चुनती हूँ
लोगों से जब भी मिलती हूँ
उनकी व्यथा कथा सुनती हूँ

अब मेरे सपने कहते हैं
दुनिया में एक क्रांति आए
भय, आतंक, युद्ध मिट जाए
सबके मन में शांति छाए

आदर्शों की बात नहीं हैं 
सबके मन की बात यही है
सच तो ये है मित्रों सारी
खुशियों की सौगात यही है

आओ ऐसे ख़्वाब सजाएं
दुनिया को फिर स्वर्ग बनाएं
कुछ तो सपने होंगे पूरे
क्या शिकवा कुछ रहे अधूरे

 -रेखा राजवंशी 

2 comments:

  1. अब मेरे सपने कहते हैं
    दुनिया में एक क्रांति आए
    भय, आतंक, युद्ध मिट जाए
    सबके मन में शांति छाए...this bit is true to our age. I luvved the poem as I could relate to it every bit. ...Padmaja

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  2. शकुन्तला बहादुरNovember 10, 2014 at 2:20 PM

    वाह! वाह!! हार्दिक बधाई !! आपकी प्रवाहमयी सुललित कविता मन को छू गई । आपने अपना सारा जीवन ही इसमें उतार दिया है ।आपका सपना सत्य हो जाए - यही कामना है ।।

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