Wednesday, November 29, 2017

बहादुर माँ – कहानी, रेखा राजवंशी


ध्रुव जब घर पहुंचा तो घर में तो चुप्पी थी, भारी क़दमों से वो सोफे तक पहुंचा और उसमें धंस गया। सारा शरीर जैसे सुन्न सा होता जा रहा था, पैरों की शक्ति कम होती लग रही थी।  ध्रुव के अशांत मन में द्वन्द चल रहा था। माँ को पता लगेगा तो क्या होगा, सोच-सोच कर वह घबरा रहा था। कैसे आखिर वो यह सहन कर पाएगी।

ध्रुव सोचने लगा- घर में और कौन है उसका मेरे अलावा, बड़ी आशाएं हैं उसे मुझसे, अब सब मिट्टी में मिल जाएँगी। मुझसे ऐसा क्यों हो गया, क्या सचमुच मेरी गलती थी, उसे लगा कि उसकी सोचने, समझने की शक्ति समाप्त हो गई है। अब तो जो होना है होगा, भरे मन से वो फ्रिज तक गया और बोतल से एक गिलास पानी लिया, पैनाडोल निकालने के लिए कैबिनेट खोली, तो मन किया सारी दवाइयां एक साथ फांक ले तो रहेगा बांस बजेगी बांसुरी। पर फिर माँ की शक्ल सामने गई, क्या होगा उसका मेरे बाद। बड़ी हसरत से मुझे पढ़ाया लिखाया है, अब अच्छी नौकरी मिली है और सब कुछ सही तरह से चल रहा था कि अचानक ये क्या हो गया। दो पैनाडोल पानी के साथ फांक ही रहा था कि बाहर पुलिस का साइरन सुनाई दिया, उसे लगा कि बस अब घर की घंटी बजने ही वाली है। जल्दी ही पुलिस उसे अरेस्ट कर लेगी। शाम के पांच बजे हैं, माँ छः बजे तक काम से लौटेगी, उसे कौन बताएगा, उसके ऊपर तो दुःख का पहाड़ ही टूट पड़ेगा।


पिता की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी, मामा से माँ का दुःख देखा नहीं गया और हमें ऑस्ट्रेलिया बुला लिया। सरकारी विद्यालय में मेरा दाखिला करा दिया और माँ को मशरूम की फैक्टरी में काम मिला। मामा के बच्चे नहीं थे, तो मामा ने खूब प्यार दिया। शीघ्र ही माँ को पोस्ट ऑफिस में नौकरी मिल गई और हम एक किराए के फ्लैट में रहने लगे। ज़िंदगी बड़ी अच्छी थी, माँ और मैं साथ-साथ बाज़ार जाते, बाहर ही कुछ खा लेते। माँ का ध्यान हर वक्त मेरी पढ़ाई में रहता, उसका सपना था कि मैं डाक्टर बनू। मैंने उसकी इच्छा पूरी की अब मैं उनतीस साल का हूँ, और मेडिकल सेंटर में जी पी हूँ। माँ मेरी शादी के ख़्वाब सजा रही है और मैं हूँ कि उसे इतना बड़ा धक्का देने जा रहा हूँ।


दरवाज़े की घंटी नहीं बजी, पुलिस कार साइरन बजाती दूर चली गई।

मैंने घर पर दृष्टि डाली, ये फ्लैट माँ के अथक परिश्रम का फल था, जिसे उसने दस साल पहले खरीदा था। मैंने उससे वादा किया था कि इसका बचा हुआ उधार मैं चुकाऊंगा। पर अब तो जेल की काल कोठरी में बीस साल गुज़ारने पड़ेंगे। मेरी आँखों से आसुओं की धार बह निकली। गलती मेरी थी ही कहाँ? लाल बत्ती पर मैं खड़ा हुआ था, जब हरी बत्ती हुई तो गाड़ी चला दी, पर जाने कैसे वो आदमी बीच सड़क पर गया, शायद भाग कर सड़क पार करने के लिए और मेरी गाड़ी उससे टकरा गई, वो उछल कर दूर गिरा, मैंने गाड़ी किनारे रोकीट्रैफिक जाम  हो गया, एम्बूलैंस आई, पुलिस आई, जांच-पड़ताल चल ही रही थी कि मैं धीरे से निकल लिया। मुझे पता है कि पुलिस जल्दी ही मुझे पकड़ लेगी, तो माँ के नाम एक चिठ्ठी लिखनी ज़रूरी थीफिर मैं खुद को पुलिस के हवाले ही कर दूंगा।

सोच ही रहा था कि दरवाज़े की घंटी बजी, दिल धड़क उठा, पुलिस गई। अब माँ को कैसे बताउंगाआगे बढ़ कर दरवाज़ा खोला-

व्हाट सरप्राइज़! आज तो मैं जल्दी आने वाली थी, और तुम मुझसे पहले ही गएमाँ ने माथा चूमा, उसकी नज़र मुझ पर पड़ी, चेहरे का रंग देखते ही समझ गई कि कहीं कुछ गड़बड़ है।

उसने पूछाक्या हुआ?’

मैं उसके सीने से लग गया एक छोटे बच्चे की तरह रोने लगा -’माँ मुझे माफ़ कर दो, मैंने जानकर कुछ नहीं किया, अचानक ऐसा हो गया।


माँ ने हिम्मत से सब सुना, वो कुछ समझ नहीं पाई, जब समझी तो कहने लगीकौन जानता है कि कब क्या होने वाला है, ये भी भाग्य का फेर हैचलो कुछ खा लो,  फिर पुलिस थाने चलते हैं। गलती तुम्हारी नहीं थी, पर अच्छा यही है कि अपना अपराध स्वीकार कर लिया जाए।'


मैंने माँ की ओर देखा और पहली बार महसूस किया कि माँ सचमुच कितनी बहादुर है।