आज गलती से
उसी पेड़ के पास आ गई हूँ
अपनी कलम से खुरच कर
जिस पर तुमने
लिख डाले थे दो नाम
बड़ी बेताबी से ढूंढती हूँ
मेरा नाम तो दिखता है
उसी तने पर थोड़ा ऊपर।
पर तुम्हारा,
ठीक तुम्हारी तरह
हो चला है गुमनाम
मैं ढूंढने लगती हूँ एक नई कलम।
............पूरी रात ओस गिरती रही
और मैं सोचती रही
कि कुछ हो रहा है
देखा तो चाँद रो रहा है।
….......
प्रेम की
सियाही में
कलम डुबो कर
कुछ हर्फ़
हवा में लिखे
और उड़ा दिए
मेरे खत
तुम तक तो
पहुंचे होंगे
और तुम्हें
लगा होगा
कि किसी ने
कहीं दूर
तुम्हे याद किया है।....
अब सन्नाटे कुछ कहते नहीं
मेरे साथ चलते हैं परछाई बनकर
बिखरने लगता हैं मन
और मैं नापने लगती हूँ अपना बौनापन।
.....
दिन भर हवा चलती रही
धूल और पत्ते उड़ते रहे
'मैं' फिर से हो गई गुम
जैसे मेरे ख्यालों के बवंडर में तुम !
.....
सर्दी में फायर प्लेस की चिमनी से
लकड़ियों के धुंए की महक आती है
मुझे अतीत में कहीं दूर ले जाती है
लगता है कि माँ ने अंगीठी जला दी है।
....
अब सन्नाटे कुछ कहते नहीं
मेरे साथ चलते हैं परछाई बनकर
बिखरने लगता हैं मन
और मैं नापने लगती हूँ अपना बौनापन।
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दिन भर हवा चलती रही
धूल और पत्ते उड़ते रहे
'मैं' फिर से हो गई गुम
जैसे मेरे ख्यालों के बवंडर में तुम !
.....
सर्दी में फायर प्लेस की चिमनी से
लकड़ियों के धुंए की महक आती है
मुझे अतीत में कहीं दूर ले जाती है
लगता है कि माँ ने अंगीठी जला दी है।
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