Monday, September 22, 2014

कलियुग की भगीरथ


गंगा उछलती है, मचलती है,
अपार विस्तार में, नर्तन करती है,
लोगों की आस्था को बढ़ाती है,
और जीवन रस बांटती बहती जाती है

जीवन की लालिमा हो
तो शक्ति का संचार करती है,
मृत्यु की कालिमा में
मुक्ति का द्वार खोलती है

बरसों से बहते-२ थकी नहीं, 
अपनी संपत्ति देते-देते छकी नहीं,
अपना जल बांटते-बांटते सूखी नहीं
लोगों की गन्दगी ढोते-ढोते रुकी नहीं

अपनी आँख की कोरों पर
टपकते आंसुओं को पी लेती है,
गंगा शिकायत नहीं करती,
बस यूँ ही जी लेती है
 
अब कुछ उदास है
पर बहती जाती है,
माँ है न… सब सह कर भी
मुस्कुराती है

देश छोड़ रही थी, तो समेट लाई थी 
गंगा मेरे सूटकेस में खिलखिलाई थी
अब गंगा मेरे घर में रहती है
पूजा त्योहारों में, पावन वो बहती है


माँ की तरह, मेरे सारे सुख-दुःख सहती है,
जाने कितने अफ़साने, गुप-चुप मुझसे कहती है,
कि फल देने लगते है, मेरे सारे तीरथ
कि मैं बनने लगती हूँ, कलियुग की भगीरथ

रेखा राजवंशी
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया