अपनी
किस्मत को कुछ ऐसे भी संवारा जाए
बीते लम्हात को फिर आज पुकारा जाए
कोई
शिकवा, न शिकायत, न गिला आज करें
…..
कौन कहता
है कि तुम चांदनी की बात करो
न ये
ख्वाहिश है कि सहराओं में बरसात करो
इल्तिज़ा
इतनी है गुमसुम न रहो, चुप न रहो
जब भी
मिलते हो सनम, हंस के मुलाक़ात करो
….
इन अँधेरों
को चलो आज हटाया जाए,
रौशनी
के लिए एक दीप जलाया जाए,
प्यार
की शम्मा हो और तेल भरोसे का हो,
रूठते दोस्त को इस तरह मनाया जाए
…..
रिश्तों नातों से बंधा है, ये एक मेला है
ज़िन्दगी में तो बहुत लोग मिला करते हैं
सच मगर ये है यहाँ आदमी अकेला है।
रेखा राजवंशी
22/8/2014