Sunday, December 15, 2013

मेरे अगले काव्य संग्रह 'मैं, चाँद और तुम' से कुछ कवितायेँ


१.
मैं थी, माँ थी, चाँद था,
मैं हंसती तो चाँद खिलखिलाता, 
मैं रोती तो मुझको चिढ़ाता, 
माँ के तकिये पर मोगरे के फूल सा, 
कभी खिलता, कभी मुरझाता, 
मैं ढूंढती रहती चरखा चलाती, बुढ़िया नानी, 
माँ सुनाती रहती कोई नई कहानी, 
कि मैं सो जाती और चाँद खो जाता

२. 
मैं कुछ बड़ी हुई, चाँद मुस्कुराया, 
मेरे साथ ऊँच-नीच खेलने लगा, 
हार और जीत के दंश झेलने लगा, 
कि कभी मैं पीछा करती चाँद का, 
कि कभी वो पीछे आता,  
कभी बादलों में लुक-छिप जाता, 
उसे ढूंढने के लिए मैं कुछ दूर जाती, 
कि माँ की आवाज़ आती 
'माना करो, मेरा कहना, 
अंदर आओ कि ठीक नहीं है 
लड़कियों का यूँ बाहर रहना, 
कि मैं अंदर आती और चाँद सो जाता 


३.  
ओ चाँद, अब मैं बाहर नहीं आ सकती, 
रात को तुमसे बतिया नहीं सकती, 
माँ कहती है अब मैं बड़ी हूँ, 
भले अपने पैरों पे खड़ी हूँ, 
अच्छा लगता है जब लोग मुझे चाँद कहते हैं,  
और माँ नज़रबट्टू लगाती है, 
उसके चेहरे पे चिंता नज़र आती है, 
और मैं खिड़की से देखती हूँ, तुम्हे आते-जाते, 
कि रात का काजल बिखर जाता है, 
चाँद का रूप निखर जाता है
  
४. 
एक चांदनी रात में 
मुझे तुम मिले, 
मन के फूल खिले, 
तुमने कहा कि मेरा चाँद 
आसमाँ के चाँद से बेहतर है, 
हम तुम साथ हों तो 
कितना हसीन सफ़र है, 
चाँद ने सुना तो मुस्कुराया, 
धीरे से मेरे कान में बुदबुदाया, 
आज के चाँद को पकड़ लो, 
बाहों में जकड़ लो, 
आकाश में उग आए तारक हज़ार 
और मन में खिल उठे, जाने कितने हरसिंगार।



५. 
मैं, तुम और प्यार, मौसम, 
चाँद, मैं खुशगवार मौसम, 
लाया है कैसी, बहार मौसम,
 तुम, मैं और चाँद मौसम, 
तुमको पाया, तो चाँद गुनगुनाया, 
सब कुछ अच्छा, सब कुछ भाया, 
रेशम का जैसे, है तार मौसम, 
मैं तुम्हारी, तुम मेरा प्यार मौसम, 
चाँद लाया ये कैसी बहार मौसम 





६. 
मैं और चाँद इंतज़ार में थे कि तुम आओगे,
अपने साथ खुशियों का पिटारा लाओगे, 
कुछ झुनझुने, कुछ खिलौने बिस्तर पर सजाओगे, 
धीरे-२ रात ने दामन फैलाया, 
न कोई फोन, न संदेसा आया, 
मेरा मन डरने लगा, 
दुविधा से भरने लगा, 
चाँद मरने लगा, 
और तुम्हारी खबर का 
इंतिज़ार करने लगा। 


७. 
मैं चाँद और तन्हाई, 
कि तुम्हारी खबर आई, 
तुम दंगे में फंस गए, 
शहर की भीड़ में धंस गए, 
और चले गए अनंत यात्रा पर, 
सूख गया मन निर्झर, 
मैं और चाँद रोते रहे, 
याद के दरख़्त बोते रहे, 
कि चाँद ने पुकारा, 
धीरे से पुचकारा, 
कि डूबते मन को 
मिला कुछ सहारा!  

८.   
 दुनिया में रौनक है, मेले हैं, 
मैं और चाँद अब अकेले हैं, 
तुम्हारा यूँ चला जाना, अखरता है,
मन भीतर ही भीतर मरता है, 
दिल हर आहट से डरता है 
कि अचानक,  
कुछ बदला सा नज़र आता है
चाँद मेरी कोख में कुलमुलाता है, 
तुम, जाने कब चाँद बन जाते हो  
कितनी यादें, कितना प्यार लाते हो। 
मैं इंतज़ार करने लगती हूँ 
तुम्हारे आने का! 


-रेखा राजवंशी 

Saturday, November 9, 2013

Thursday, August 15, 2013

झंडे में लिपटी, अनगिन यादें





भारत के झंडे में लिपटी, अनगिन यादें आईं हैं
माँ की ममता, लाड़ पिता का, जाने क्या-२ लाई हैं   

इसमें बंद शहीदों के बलिदानों की गौरव गाथा
आज़ादी की मीठी खुशबू, नई रवानी लाई  है

बीता बचपन इसमें है, भूले बिसरे अफसाने हैं 
चरखा, मित्र, पतंगें, टीचर,  बंटती हुई मिठाई है  

कुछ जोशीले नारे भी हैं, कुछ बेबाक तराने हैं
गांधी, सुभाष और भगतसिंह की, क़ुरबानी रंग लाई है

खट्टी अमिया का अचार और पूरी-आलू की सुगंध है
आज़ादी की स्वर्णिम बेला सबके मन को भाई है  

रेखा राजवंशी, 
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया  

Friday, July 5, 2013

बच्चों के नाम तीन कविताएं

1.

कम्प्यूटर

नहीं चाहिए मुझको ट्यूटर 
माँ मुझको ला दे कम्प्यूटर। 

कम्प्यूटर में ज्ञान है सारा 
ये है सारे जग से न्यारा। 
ये स्पेलिंग सिखलाता है 
शब्दकोष इसमें आता है।   
पूछो कोई भी सवाल तो 
गूगल भाई सुलझाता है। 
गणित और विज्ञान सभी के 
मिनटों में ले आता उत्तर। 

नहीं चाहिए मुझको ट्यूटर 
माँ मुझको ला दे कम्प्यूटर।

.....

2. 


 आइसक्रीम वाला




आइसक्रीम वाला आया 
देखो आइसक्रीम लाया
मैंगो, कुल्फी और वनिला 
खाएं मुन्नी और शकीला 

...

3. 
पॉपकॉर्न 


पापा लाए पॉपकॉर्न 
माँ ने बनाए पॉपकॉर्न 
माइक्रोवेव में जब रखे 
उछले कूदे पॉपकॉर्न 
जब थोडा सा शांत हुए 
निकले फूले पॉपकॉर्न 
माँ, पापा, दीदी, भैया 
सबने खाए पॉपकॉर्न
हलके-फुल्के, रुल्के-ढुलके  
मन को भाए पॉपकॉर्न 
.....
रेखा राजवंशी
सिडनी,  ऑस्ट्रेलिया 

Tuesday, April 23, 2013

बहता नीर


मन को अपने फ़क़ीर कर लीजे 
साफ़ अपना ज़मीर कर लीजे 
..
ठहरे पानी से मलिन मत रहिये 
सोच को बहता नीर कर लीजे 

..
कल गया, आज, अभी ये है सच 
ये सच्चाई लकीर कर लीजे 
..
माफ़ कर दें और मांग लें माफ़ी 
दूर यूँ मन की पीर कर लीजे
..
न घुटन और न गर्मी बनिए 
बन के शीतल समीर बह लीजे 
..
मौत जीवन की चल रही चक्की 
भाव अपना गंभीर कर लीजे 
..
रेखा राजवंशी, सिडनी 

Wednesday, March 20, 2013

वर्ना ........


1.  आईने सच नहीं कहते वर्ना 
देख के अक्स लोग डर जाते 
...
2. अपना घर तो है, चाहें जैसा है 
वर्ना हर शाम को किधर जाते 
..
 3. हवाएं गर्म हैं, मगर हैं तो 
वर्ना तो लोग घुट के मर जाते 
..
4. कस्बों में अपने नौकरी ही नहीं  
वर्ना क्यों लोग यूँ शहर जाते 
..
5. उनके दिल में ही मुहब्बत न थी  
 वर्ना दो पल को तो  ठहर जाते 
..
6. एक सहरा में खो गए वर्ना 
लोग कहते हैं वो सहर लाते 
..
7. डर है दिल में ज़माने का वर्ना 
हम तुम इन्कलाब कर जाते 
..
-रेखा राजवंशी