आज मैं अपने ब्लॉग पर बहुत दिन बाद लिख रही हूँ. करीब -करीब तीन महीने बाद. बहुत बार सोचा पर मन बना नहीं पाई. जैसे उदासी की एक परत मन की ख़ुशी पर आकर जम गई थी. बहुत चाहा कि कुछ लिखूं, पर कलम नहीं चली. ये 'राइटर्स ब्लाक ' नहीं था ये ज़िन्दगी के कटु सत्य से रूबरू होने का परिणाम था.
बड़े भाई बीमार थे, दोनों किडनी फेल हो गईं थीं और दूसरे भाई की देख रेख में इलाज चल रहा था. हर हफ्ते बात हो जाती थी. कभी फोन पर उनकी गिरती हालत का अंदाजा लगता था तो कभी उनकी हालत सुधरने से अच्छा लगता था. जाने कब हम सबकी मनःस्थिति उनकी हालत के उतार-चढ़ाव के साथ बंध गई. उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी सिर्फ बासठ के थे और उम्मीद थी कि कोई किडनी मिलते ही ट्रांसप्लांट हो जाएगा और उनकी ज़िन्दगी कुछ साल और बढ़ जाएगी. किडनी डायलिसिस से भी लोग कई साल जी जाते हैं, यही सोचकर दिलासा मिलता था. पर किस्मत ने साथ नहीं दिया, उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया, और ऑपरेशन के बाद तो सारी आशाएं टूटने लगीं.
हमारी इच्छा थी कि वे कुछ दिन और जी जाते तो अपनी छोटी बेटी की शादी कर पाते. फोन पर बात हुई तो कहने लगे 'आ जाओ, कब आओगी' मैंने कहा जैसे ही छुट्टियाँ होंगी. पर उतना वक्त मिला ही नहीं, जैसे ही छुट्टियाँ हुईं, कुछ सोचने का वक्त मिला, कि खबर आ गई, वे नहीं रहे. मन घबराया और अकेली ही चेन्नई पहुँच गई. एक महीने के प्रवास के बाद जब लौटी तो भी मनःस्थिति ठीक नहीं थी, ज़िन्दगी कांच का एक गिलास लगती थी कि कभी भी गिर जाए और टूट जाए.
बड़े भाई बीमार थे, दोनों किडनी फेल हो गईं थीं और दूसरे भाई की देख रेख में इलाज चल रहा था. हर हफ्ते बात हो जाती थी. कभी फोन पर उनकी गिरती हालत का अंदाजा लगता था तो कभी उनकी हालत सुधरने से अच्छा लगता था. जाने कब हम सबकी मनःस्थिति उनकी हालत के उतार-चढ़ाव के साथ बंध गई. उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी सिर्फ बासठ के थे और उम्मीद थी कि कोई किडनी मिलते ही ट्रांसप्लांट हो जाएगा और उनकी ज़िन्दगी कुछ साल और बढ़ जाएगी. किडनी डायलिसिस से भी लोग कई साल जी जाते हैं, यही सोचकर दिलासा मिलता था. पर किस्मत ने साथ नहीं दिया, उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया, और ऑपरेशन के बाद तो सारी आशाएं टूटने लगीं.
हमारी इच्छा थी कि वे कुछ दिन और जी जाते तो अपनी छोटी बेटी की शादी कर पाते. फोन पर बात हुई तो कहने लगे 'आ जाओ, कब आओगी' मैंने कहा जैसे ही छुट्टियाँ होंगी. पर उतना वक्त मिला ही नहीं, जैसे ही छुट्टियाँ हुईं, कुछ सोचने का वक्त मिला, कि खबर आ गई, वे नहीं रहे. मन घबराया और अकेली ही चेन्नई पहुँच गई. एक महीने के प्रवास के बाद जब लौटी तो भी मनःस्थिति ठीक नहीं थी, ज़िन्दगी कांच का एक गिलास लगती थी कि कभी भी गिर जाए और टूट जाए.
तभी होली के वार्षिक चैरिटी रात्रि भोज का आयोजन करने की बात हुई. सामुदायिक अखबार 'द इंडियन डाउन अंडर' की संपादिका नीना बधवार और मैंने मिलकर पिछले साल कुल सोलह रिक्शों के पैसे इकट्ठे करके दिल्ली भेजे थे, जो श्री राम कॉलेज के साईफ रिक्शा प्रोजेक्ट में चले गए थे. ऑस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड राज्य में भीषण बाढ़ से तबाही हुई थी तो हजार डॉलर वहां के लिए भी दिए थे.
इस बार मन उदास था तो न तो हिम्मत थी, न उत्साह. पर चैरिटी की बात थी तो सोचा प्रयास करा जाए.
करीब हर शाम २ घंटे इन्टरनेट पर सन्देश भेजने या फोन से बात करने में बीतने लगे. कभी लोग अच्छी बात करते तो उत्साह बढ़ता, पर कभी अच्छा उत्तर न मिलता तो निराशा होती. रात्रिभोज के टिकट बेचना सबसे मुश्किल था. राहत फ़तेह अली खां का कॉन्सर्ट था, सोनू निगम के आने का शोर था, ऐसे में चैरिटी जैसी बात में सिडनी के लोग बहुत उत्साहित नहीं लगते थे. चैरिटी का मुख्य प्रयोजन दिल्ली के कालका जी की झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली लड़कियों के लिए सिलाई मशीनें इकट्ठी करना और उन्हें सिलाई की ट्रेनिंग देना था. धीरे- धीरे सिलाई मशीनों को दान करने वालों की संख्या बढ़ने लगी. और हमारा तीस मशीनों का टारगेट पूरा हो गया.
लोगों में उत्साह बढ़ा और रात्रिभोज के दो दिन पहले मशीनों की संख्या चालीस हो गई. मशीनों के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी करनी थी, पांच दिन की बिहेवियर मैनेजमेंट की नौकरी के साथ एक दिन की सिडनी यूनिवर्सिटी की हिन्दी क्लास, कुल मिलाकर काम की अधिकता से मैं परेशान हो गई. इस दौरान कुछ लिखा ही नहीं गया. कार्यक्रम सफल रहा, पर रात्रिभोज के अगले दिन कुछ ऐसा हुआ कि मैं लिखने पर मजबूर हो गई.
इस बार मन उदास था तो न तो हिम्मत थी, न उत्साह. पर चैरिटी की बात थी तो सोचा प्रयास करा जाए.
करीब हर शाम २ घंटे इन्टरनेट पर सन्देश भेजने या फोन से बात करने में बीतने लगे. कभी लोग अच्छी बात करते तो उत्साह बढ़ता, पर कभी अच्छा उत्तर न मिलता तो निराशा होती. रात्रिभोज के टिकट बेचना सबसे मुश्किल था. राहत फ़तेह अली खां का कॉन्सर्ट था, सोनू निगम के आने का शोर था, ऐसे में चैरिटी जैसी बात में सिडनी के लोग बहुत उत्साहित नहीं लगते थे. चैरिटी का मुख्य प्रयोजन दिल्ली के कालका जी की झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली लड़कियों के लिए सिलाई मशीनें इकट्ठी करना और उन्हें सिलाई की ट्रेनिंग देना था. धीरे- धीरे सिलाई मशीनों को दान करने वालों की संख्या बढ़ने लगी. और हमारा तीस मशीनों का टारगेट पूरा हो गया.
लोगों में उत्साह बढ़ा और रात्रिभोज के दो दिन पहले मशीनों की संख्या चालीस हो गई. मशीनों के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी करनी थी, पांच दिन की बिहेवियर मैनेजमेंट की नौकरी के साथ एक दिन की सिडनी यूनिवर्सिटी की हिन्दी क्लास, कुल मिलाकर काम की अधिकता से मैं परेशान हो गई. इस दौरान कुछ लिखा ही नहीं गया. कार्यक्रम सफल रहा, पर रात्रिभोज के अगले दिन कुछ ऐसा हुआ कि मैं लिखने पर मजबूर हो गई.
जब अगले दिन मैं शनिवार की हिन्दी की बारहवीं कक्षा को पढ़ाने गई तो मेरे 15 विद्यार्थियों ने कार्यक्रम के बारे में जानना चाहा, और मैंने उन्हें कार्यक्रम की सफलता की कहानी बताई. क्योंकि रात्रिभोज के दौरान मशीनों की संख्या छप्पन हो गई हम अपने लक्ष्य से दुगनी मशीनें इकट्ठी कर चुके थे. सिडनी के व्यवसाइयों ने ही नहीं, बल्कि व्यक्तियों ने भी उत्साह दिखाया. कार्यक्रम बहुत सफल रहा, तो एक विद्यार्थी ने कहा कि वह मुझे कल शाम फोन करने की कोशिश कर रहा था . वह एक मेहनती छात्र है और सिडनी में अपने भाई के साथ रहता है. अपना खर्चा निकलने के लिए अपने कई हमउम्र लड़कों की तरह पार्ट टाइम नौकरी करता है. गोपनीयता के कारण मैं उसका नाम नहीं लिख सकती आप मान लें कि उस किशोर का नाम आकाश है.
कक्षा के बाद मैं कार में बैठी ही थी कि मेरा फोन बजा. मैंने उठाया और कहा कि मैं कार चला रही हूँ, बात नहीं कर सकती, बाद में फोन करना. घर पहुंची ही थी कि फोन फिर बजा, फोन पर आकाश था. मैंने पूछा 'क्या हुआ, सब ठीक तो है' बोला 'आंटी, बस यही कहना था कि मैं भी एक मशीन देना चाहता हूँ, कल भी मैंने बहुत ट्राई किया आपने फोन नहीं लिया'
कक्षा के बाद मैं कार में बैठी ही थी कि मेरा फोन बजा. मैंने उठाया और कहा कि मैं कार चला रही हूँ, बात नहीं कर सकती, बाद में फोन करना. घर पहुंची ही थी कि फोन फिर बजा, फोन पर आकाश था. मैंने पूछा 'क्या हुआ, सब ठीक तो है' बोला 'आंटी, बस यही कहना था कि मैं भी एक मशीन देना चाहता हूँ, कल भी मैंने बहुत ट्राई किया आपने फोन नहीं लिया'
मैं विश्वास न कर सकी. अठ्ठारह साल का लड़का, माँ बाप से दूर, अपने जेब खर्च के लिए नौकरी कर रहा है, जब इस उम्र के किशोर खेलने-खाने की सोचते हैं, वह अपना जेब खर्च काट कर मशीन के लिए एक सौ पच्चीस डॉलर देने की बात कर रहा है. मैं भावुक हो गई-
'अरे तुम आकाश, तुमसे कुछ नहीं चाहिए, मेहनत करके जब कुछ बन जाओगे तो ये सब काम करना, बहुत समय है तुम्हारे पास.'
गर्व और हठ के साथ वो बोला 'मैं कमाता तो हूँ, मैं ज़रूर देना चाहता हूँ, पर प्लीज़ आप मेरा नाम किसी को न बताना, क्लास में तो बिलकुल नहीं.'
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई. आशा की की एक किरण जागी, उस किरण के सहारे भविष्य के प्रति अचानक कुछ निश्चिन्त हो गई. मैंने सोचा कि आज पिछले तीन महीनों से रुकी कलम उठा ही लूँ, शायद ये किस्सा आपको भी कहीं आश्वस्त करे.
'अरे तुम आकाश, तुमसे कुछ नहीं चाहिए, मेहनत करके जब कुछ बन जाओगे तो ये सब काम करना, बहुत समय है तुम्हारे पास.'
गर्व और हठ के साथ वो बोला 'मैं कमाता तो हूँ, मैं ज़रूर देना चाहता हूँ, पर प्लीज़ आप मेरा नाम किसी को न बताना, क्लास में तो बिलकुल नहीं.'
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई. आशा की की एक किरण जागी, उस किरण के सहारे भविष्य के प्रति अचानक कुछ निश्चिन्त हो गई. मैंने सोचा कि आज पिछले तीन महीनों से रुकी कलम उठा ही लूँ, शायद ये किस्सा आपको भी कहीं आश्वस्त करे.
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- रेखा राजवंशी, सिडनी